'श्री, क्या तुम मेरे घर आओगी!
सिन्दूरी पैरों से मेरे घर में खुशियाँ लाओगी।
जानती हूँ, तुम्हें बड़े बंगलों से न्योता आता है,
उनकी उजली चमक में मेरा घर खो जाता है।
चमकीली पन्नी से लिपटी, सुंदर डिब्बों में बैठे,
बड़ी बड़ी गाड़ी में चढ़ कर, जाती हो तुम ऐंठे।
सोने के मंदिर,घंटी और परदे रेशम वाले,
तुम्हारे लिए बनते होंगे छप्पन भोग निराले।
अपनी कुटिया में ऐसे ठाठ कहाँ से लाऊं,
जब अपने बच्चों का ही मैं पेट भर न पाऊं।
फिर भी ये है आस, तुम रास्ता भूल जाओगी,
श्री, क्या तुम मेरे घर आओगी!
घर भर को झाड़ा बुहारा, कोना कोना चमकाया,
पर मकड़ी ठहरी कर्मठ और धुल हवा का साया।
अब तक तो मेरी मेहनत मिटटी में मिल गयी होगी,
पर तुम तो माँ हो, बुरा तो न मान लोगी!
इस बार मैंने तुम्हारे लिए घी का दिया बनाया,
जो मैंने अपने बच्चे की थाली से रोज़ बचाया।
अपनी बेरंग साड़ी को फिर धो के पहन लूंगी,
पर तेरी थाली में चांदी का सिक्का रख दूंगी।
दिल कहता है इतने पर तो तुम खुश हो जाओगी,
श्री, क्या तुम मेरे घर आओगी!
सिन्दूरी पैरों से मेरे घर में खुशियाँ लाओगी।'
Happy Diwali :-)
ReplyDeleteto you too!
DeleteLaced with irony! Beautifully versed!
ReplyDeleteShubh Deepavali to you and yours!
Thanks Deepak, Happy Diwali to you too!
Deletevery nice and innovative, i enjoyed it. its really good.
ReplyDeleteThanks Sanjana! Welcome to my space!!
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